आइए, दूर, बहुत दूर अपने देश के बाहर फ्रांस मैं में चलें. इस देश के उत्तर में मेविल्ल नामक एक गाँव है. यह बेतून से १५ किलोमीटर उत्तर मैं और अमन्तीय से २० किलोमीटर दक्षिण पश्चिम की तरफ पड़ता है. १९६८ में इसकी आबादी मात्र 1053 थी. निश्चय ही १९१४ में यह बहुत ही छोटा गांव रहा होगा.
इस गांव में जर्मन और फ्रेंच तथा ब्रिटिश घुड़ सेनाओं के मध्य अक्टूबर १९१४ के प्रारम्भ में लड़ाई हुई थी. उसके पश्चात ९ अक्टूबर १९१४ से ११ अप्रैल १९१८ तक यह गांव अलाइड फौजों के नियंत्रण में रहा. अक्टूबर १९१४ और १९१५ के पतझर तक यह इंडियन कोर का हेडक्वार्टर भी था. यह रेल लाइन पर था और मई १९१५ तक यहाँ एक बिलटिंग और हॉस्पिटल सेंटर भी था. ६थ एवं लाहौर कसुअल्टी क्लीयरिंग स्टेशन भी १९१४ के पतझर से १९१५ के ऑटम तथा ७ दिसंबर १९१४ से अप्रैल १९१७ भी यहाँ स्थापित थे.
मेविल्ल के एक तरफ हरी भरी घास वाले मैदान में एक कब्रिस्तान है. आइए, वहां चलें. यहाँ कब्रों की पंक्तियाँ ही पंक्तियाँ हैं जिन मैं प्रथम महान युद्ध के १२६२ वीर सैनिक दफनाये पड़े हैं. आप को निस्चय ही कोतूहल होगा की इस में हम भारतीयों की क्या रूचि हो सकती है? आप को जान के आश्चर्य होगा की इनमे ९७ कब्रें भारतीय शहीद सैनकों की हैं जो सौ सालों से चिर निद्रा मैं सो रहें हैं.
आईये ज़रा निकट चलें. दो कब्रें प्रताब सिंह की हैं. दोनों ही सेना मैं सिपाही थे. एक ५९ वी सिन्दीा राइफल्स (फ्रंटियर फ़ोर्स) में नम्बर ३९५४ के सिपाही थे. वह १२ अगस्त १९१५ को वीरगति को प्राप्त हुए. उनकी कब्र इस मैदान के ३ क्यू १० भाग मैं है. शायद उनक नाम प्रताप सिंह था को की अंग्रेज़ों की समझ मैं नहीं आया और उन्हों ने उसे प्रताब सिंह लिखा.
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दूसरे वीर प्रताप सिंह ३४ वी सिख पाइओनेअर्स के सिपाही थे. वह ८ नवम्बर १९१४ को शहीद हुए. उनकी कब्र इस मैदान के ई के ३४ भाग में है. १७ वि इंडियन इन्फेंट्री (लॉयल रेजिमेंट) के लांस नायक नंबर २७९९ फ़र्ज़न्द अली खान जो २० सितम्बर १९१५ को शहीद हुए भी यहाँ हैं. उनकी कब्र, कब्रिस्ताबन के भाग ८.अ.१० में है.</p>
मन सिंह थापा २ किंग एडवर्ड्स ओन गोरखा राइफल्स ( सिरमूर राइफल्स) के वीर राइफलमैन नंबर ४३९४ थे.
A photo taken at Merville by H.D.Girdwood
<p>यह भारतीय बहादुर देश के किस किस सूबे से आये थे, किस किस गाओं में इनके घर थे, इनके परिवार भाई बंधू कौन थे, माता पिता, पत्नी बच्चे कुछ पता नहीं है. क्या ये ब्रिटिश गोवेनमेंट की जिमेवारी नहीं थी की उनके नाम पाते तो सुरक्षित रखते? और १९४७ में आज़ादी के बाद इस दिशा में हमने क्या किया है?</p>
सौ साल से यह भारतीय इस इंतज़ार मैं हैं की उनका कोई भाई बंधू, मित्र और फिर कोई देशवासी आ कर उन्हे मिले. पर दुःख की बात है की शायद ही कोई भारतीय पिछले १०० साल में गया हो.
‘ऐय मेरे वतन के लोगो
ज़रा आँख में भर लो पानी
जो शहीद हुए हैं उनकी
याद करो क़ुरबानी’
जय हिन्द!
(With inputs from Commonwealth War Graves Commission’s website and internet)